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रविवार, 2 मई 2010

रात जाएगी सुबह आएगी

रात जाएगी सुबह आएगी नई फिर से
दुख से मत डरना कि आएगी हर खुशी फिर से।

बहक गए हैं कि जो लोग अपने रस्तों से
बना दे काश कोई उनको आदमी फिर से।

एक अरसे से जो रूठी थी ये किस्मत मुझसे
आज लौटा के गई वो मेरी हँसी फिर से।

पत्तियाँ झर गई पेड़ों पे उदासी छाई
कोई बतलाए ये कैसे हवा चली फिर से।

सच कहा है ये किसी ने कि गोल है दुनिया
ये न सोचा था कि मिल जाएँगे कभी फिर से।

याद आए वो बहुत आज याद आए वो
आज महफ़िल में खली उनकी ही कमी फिर से।

सूनी दीवारों पे टँगते गए जो चित्र कई
ले के आए मेरी आँखों में इक नमी फिर से।

खुदकुशी करना

खुदकुशी करना बहुत आसान है,
जी के दिखला, तब कहूँ इनसान है।

सारी दुनिया चाहे जो कहती रहे,
मैं जिसे पूजूँ वही भगवान है।

चंद नियमों में न यो बँध पाएगी,
ज़िंदगी की हर डगर अनजान है।

टिक नहीं पाएगा कोई सच यहाँ,
झूठ ने जारी किया फ़रमान है।

भीगा मौसम कह गया ये कान में,
क्यों गली, दिल की तेरे वीरान है।

औरतें

खुद शराब हैं
मगर पीने से
डरती है
मुहब्बत में
मर जायें
सौ-सौ बार
मगर बुड्ढी होकर
जीने से डरती है।

प्रवृत्ति

महंगाई कितनी ही
बढ़ जाए,
दिखावे की बेड़ियाँ
नहीं तोड़तें हैं,
नमक का भाव
आसमान चढ़ जाए पर
दूसरों के जली पर
छिड़कना नहीं
छोड़ते हैं।

औरतें कुछ परिभाषाएँ

लुगाई का लोग
कर्मों का भोग
लोग की लुगाई
समझो मुसीबत आई,

पति की पत्नी
पर कतरनी,
पत्नी का पति
मारी गई मति

हजबैंड की वाइफ
टेंशन में लाइफ़
वाइफ का हज़बैण्ड,
बेलन से बाजे बैंड,

सजनी का साजन
बना कोपभाजन,
साजन की सजनी
मनभर वजनी

गुलाम की जोरू
बड़ी कानफोडू
जोरू का गुलाम
समझो काम तमाम

कविता खतम
राम-राम।

चमचा

थाली से छोटा होता है चमचा
डोंगे से छोटा होता है चमचा
कटोरी से भी छोटा है चमचा
पर साहब की थाली में पड़ा इतराता
बहुत बड़ा होता है चमचा।

साहब को ठेके के चावल खिलाता है चमचा
साहब को कमीशन का हलवा खिलाता है चमचा
तन्वंगी भिंडी का स्वाद चखाता है चमचा
शाही ठाठ से पनीर खिलाता है चमचा

बहुत त्यागी होता है चमचा
साहब का भरता पेट
खुद खाली पेट रहता है चमचा
साहब के मुँह में आ जाए कंकर अगर
हँसकर झूठन उठाता है चमचा

खुशी से नहीं फूला समाता है चमचा
जब साहब के हाथों में होता है चमचा
जब साहब के ओठों को छूता है चमचा
बौने नजर आते हैं सब
साहब हो जाता है, साहब का चमचा

साहब के साहब की पार्टी में
छोटा बड़ा सब तरह का होता है चमचा।
जगमगाते विदेशी बर्तनों के बीच
टेबलपर चाँदी का सजता है चमचा।
छोटे मोटे दोस्तों की पार्टी के बीच
स्टील का चलता है चमचा
जान पर खेलने वाले मूर्ख सेवकों को
मिलता है प्लास्टिक का चमचा

मैं तो हाथ से खा लूँगा साहब बोला चमचा
चमचे को नसीब नहीं होता है चमचा
साहब के कच्चे कानों में कुछ फुसफुसाता है चमचा
पर निंदा का रस पिलाता है चमचा
सावन का अंधा हो जाता है साहब
कुछ भी नजर नहीं आता
नजर आता है साहब को बस साहब का चमचा

घर में अचानक टपक पड़े साहब
फूला नहीं समाता है चमचा
सारा घर बन जाता है चमचे का चमचा
मेरे साहब आज मेरे घर आए
टेलिफोन पर ताजा समाचार पढ़कर
चमचों को सुनाता है चमचा

चमचमाती दुनिया में प्यारे
हर कोई किसी न किसी का चमचा
कोई अपनी पत्नी का चमचा
कोई दूसरे बीवी का चमचा
कोई साहब का चमचा, कोई साहिबा का चमचा।

प्यार का रंग

दुनिया बदली
मगर प्यार का रंग न बदला

अब भी
खिले फूल के अन्दर
खुशबू होती है
गहरी पीड़ा में अक्सर हाँ
आँखें रोती हैं
कविता बदली, पर
लय-छंद-प्रसंग नहीं बदला

वर्षा होती
आसमान में बादल
घिरने पर
पात बिखर जाते हैं
जब भी आता है पतझर
पर पेड़ों से
पत्तों का आसंग नहीं बदला

हरदम भरने को उड़ान
तत्पर रहती पाँखें
मौसम आने पर
फूलों से
लदती हैं शाख़ें
बदली हवा
सुबह होने का ढंग नहीं बदला

मौसम

दिन अंधेरा, रात काली
सर्द मौसम है

दहशतों की कैद में
लेकिन नहीं हम हैं!

नहीं गौरैया
यहाँ पाँखें खुजाती है
घोंसले में छिपी चिड़िया
थरथराती है

है यहाँ केवल अमावस
नहीं, पूनम है!

गूँजती शहनाइयों में
दब गईं चीखें
दिन नहीं बदले
बदलती रहीं तारीखें
हिल रही परछाइयों-सा
हिल रहा भ्रम है!

वनों को, वनपाखियों का
घर न होना है
मछलियों को ताल पर
निर्भर न होना है

दर्ज यह इतिहास में
हो रहा हरदम है!

प्रशांत