रविवार, 5 सितंबर 2010
ज़हरीला धुआँ
अपने जिस्म की
परछाई देख
कितना ज़हरीला था
वो धुआँ
जो तुम उगलते रहे....!!
सोमवार, 30 अगस्त 2010
औरत के शरीर में लोहा
सड़क पर, बस में और हर जगह
पाए जाने वाले आशिकों से
उसका मन हो जाता है लोहे का
बचनी नहीं संवेदनाएँ
बड़े शहर की भाग-दौड़ के बीच
लोहे के चने चबाने जैसा है
दफ़्तर और घर के बीच का संतुलन
कर जाती है वह यह भी आसानी से
जैसे लोहे पर चढ़ाई जाती है सान
उसी तरह वह भी हमेशा
चढ़ी रहती है हाल पर
इतना लोहा होने के बावजूद
एक नन्ही किलकारी
तोड़ देती है दम
उसकी गुनगुनी कोख में
क्योंकि
डॉक्टर कहते हैं
ख़ून में लोहे की कमी थी।
प्रेम
वे ग़लत हैं
जो कहते हैं प्रेम आंदोलन है
वे ग़लत हैं
जो कहते हैं प्रेम समर्पण है
वे भी ग़लत हैं
जो कहते हैं प्रेम पागलपन है
वे भी इसे समझ नहीं पाए
प्रेम इनमें से कुछ भी नहीं है
प्रेम एक समझौता है
जो दो लोग आपस में करते हैं
दरअसल प्रेम एक सौदा है
जिसमें मोल-भाव की बहुत गुंजाइश है
प्रेम जुआ है
जो परिस्थिति की चौपड़ पर
ज़रूरत के पांसों से खेला जाता है
बुधवार, 18 अगस्त 2010
कहीं एक मासूम नाज़ुक सी लड़की
कहीं एक मासूम नाज़ुक सी लड़की, बहुत खूबसूरत मगर सांवली सी
मुझे अपने ख़्वाबों की बाहों में पाकर, कभी नींद में मुस्कुराती तो होगी
उसी नींद में कसमसा कसमसाकर, सराहने से तकिये गिराती तो होगी
वही ख्वाब दिन के मुंडेरों पे आके, उसे मन ही मन में लुभाते तो होंगे
कई साज़ सीने की खामोशियों में, मेरी याद में झनझनाते तो होंगे
वो बेसाख्ता धीमे धीमे सुरों में, मेरी धुन में कुछ गुनगुनाती तो होगी
चलो ख़त लिखें जी में आता तो होगा, मगर उंगलियाँ कंप-कंपाती तो होंगी
कलम हाथ से छूट जाता तो होगा, उमंगें कलम फिर उठाती तो होंगी
मेरा नाम अपनी किताबों पे लिखकर, वो दांतों में उंगली दबाती तो होगी
जुबां से कभी उफ़ निकलती तो होगी, बदन धीमे धीमे सुलगता तो होगा
कहीं के कहीं पाँव पड़ते तो होंगे, दुपट्टा ज़मीन पर लटकता तो होगा
कभी सुबह को शाम कहती तो होगी, कभी रात को दिन बताती तो होगी
कहीं एक मासूम नाज़ुक सी लड़की, बहुत खूबसूरत मगर सांवली सी
सोमवार, 16 अगस्त 2010
मैं ऐसा क्यों हूँ …
क्यों खुश हो जाता हूँ मैं
तुम्हारी ख़ुशी देखके
क्यों हो जाता हूँ मैं हताश
तुम्हें उदास देखके
चहक सा उठता हूँ मैं क्यों
जब मिलने कि बारी आती हैं
पर क्यों मिलने बाद घंटो
नींद नहीं आती हैं
आँखें बंद करने से क्यों
याद तुम्हारी आती हैं
पर जब खुलती हैं तोह
क्यों फिर तू सामने आती हैं
आँशु तेरे टपकते हैं
तो मैं क्यों सिसकता हूँ
जरा सी तू हस्ती हैं
तो मैं क्यों निखरता हूँ
जब भी देखता हूँ तुम्हें
बस यह सोचता हूँ
पूछो तुमसे या तुमसे कहूँ
रखूं दिल में ये बात या कह दूँ
सुन जरा बस इतना बता
मैं ऐसा क्यों हूँ
मैं ऐसा क्यों हूँ …
आदमी आदमी को क्या देगा
आदमी आदमी को क्या देगा
जो भी देगा वोही खुदा देगा
मेरा कातिल ही मेरा मुन्सिफ है
क्या मेरे हक में फैसला देगा
ज़िंदगी को करीब से देखो
इसका चेहरा तुम्हें रुला देगा
हमसे पूछो दोस्ती का सिला
दुश्मनों का भी दिल हिला देगा
इश्क का ज़हर पी लिया “फाकिर”
अब मसीहा भी क्या दवा देगा
तेरी आँखों सी आंखें
आज एक चेहरे पे देखि हैं
वोही रंगत, बनावट
और वेसी बे - रुखी उन मैं
बिचरते वक़्त जो मैने
तेरी आँखों मैं देखी थी
तेरी आँखों सी आँखों ने
मुझे एक पल को देखा था
वो पल एक आम सा पल था
पुराने कितने मौसम ,
कितने मंज़र मैने देखे थे
मेरी जान मैं ये समझा था
तेरी आँखों सी आंखें जब
मेरी आँखों को देखेंगी
तो एक लम्हे को सोचेंगी
के इन आँखों को पहले भी
किसी चेहरे पे देखा है
मगर इन झील आँखों मैं
शनासाई नही जगी
मेरी आंखें !!
तेरी आँखों सी आँखों के लिए
कब ख़ास आंखें थीं
तेरी आँखों ने शयेद ये
कई चेहरों पे देखी हों
के ये तो आम आंखें हैं
मैं ऐसा सोच सकता था
मगर मैं कीया करूँ दिल का
जो अब यह याद रखेगा
तेरी आँखों सी आंखें
मैं ने एक चेहरे पे देखि थीं !!
फिर उस कबाड़ कितने दिन
मेरी आँखों मैं सावन था ..