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रविवार, 5 सितंबर 2010
ज़हरीला धुआँ
नज़्में भी चीख़तीं हैं
अपने जिस्म की
परछाई देख
कितना ज़हरीला था
वो धुआँ
जो तुम उगलते रहे....!!
1 टिप्पणी:
ओशो रजनीश
5 सितंबर 2010 को 9:27 am बजे
अच्छी पंक्तिया लिखी है आपने ..
http://oshotheone.blogspot.com
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प्रशांत कुमार
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