यह ब्लॉग खोजें

गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

आज फिर

आज फिर से धूप चढ़ आई है छत पर मेरी
हसरतों को रौशनी से है छुपाया आज फिर
कमजोर हाथों की लकीरें हैं, मगर मिटती नहीं
कह कर यही दिल को है बहलाया आज फिर
और कुछ खोया या पाया, क्या पता? हूँ बेखबर
जिंदगी से एक दिन हमने गंवाया आज फिर

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें